सोनिया गांधी- एक अनिच्छुक राजनीतिज्ञ, जिन्होंने कांग्रेस के जहाज को डूबने से पहले आगे बढ़ाया

सोनिया गांधी ने रुक-रुक कर अपने उच्चारण वाली हिंदी में रैलियों को संबोधित करना सीखा और अपने इतालवी मूल के खिलाफ बीजेपी के आरोपों को उन्होंने कुंद कर दिया. उनके नेतृत्व में कांग्रेस केंद्र में 2004 से 2014 तक दो बार सत्ता में रही और कई राज्यों में सत्ता में लौटी.
 

23 अक्टूबर को अपने उत्तराधिकारी मल्लिकार्जुन खरगे को कांग्रेस की अध्यक्षता सौंपते हुए सोनिया गांधी ने मुस्कराते हुए (ऐसा दुर्लभ ही होता है) कहा, “मुझे राहत महसूस हो रही है.” कांग्रेस के लिए सबसे लंबे वक्त तक अध्यक्षता करने वाली सोनिया गांधी शुक्रवार को 76 बरस की हो गईं और अब सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर वह अपना बर्थडे सेलिब्रेट किया. पिछले हफ्ते, नए अध्यक्ष के अधीन एआईसीसी संचालन समिति की पहली बैठक में वह एक शांत, मूक अतिथि के रूप में मंच पर मौजूद थीं. नए कांग्रेस अध्यक्ष ने उनकी सराहना के प्रतीक के रूप में उन्हें पूर्व पीएम राजीव गांधी की तस्वीर भेंट की. उन्होंने शांति के साथ इस उपहार को स्वीकार किया.


सुर्खियों से दूर होने के बावजूद सोनिया का रहस्य बरकरार है, मीडिया के लिए उनकी दुर्गमता ने इस पहेली को और पोषित किया. फिर भी, दूरदराज के गांवों और कस्बों में भीड़ के लिए वह एक तरह की मातृसत्ता रहीं, जो उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनती थीं. अब वह अपनी पार्टी की राजनीति में केंद्रीय मंच से दूर हो गई हैं, एक व्यक्ति के रूप में लोग सोनिया गांधी की पसंद-नापसंद के बारे में बहुत कम जानते हैं. वे उन्हें केवल एक सुरक्षात्मक मां और एक नेहरूवादी समाजवादी के रूप में जानते हैं. यह वही सीमा है जहां तक उन्होंने जनता को अपनी निजी दुनिया में आने दिया और शायद वह इसे इसी तरह रखना चाहती थीं.

इटैलियन बहू का रूप परिवर्तन
9 दिसंबर, 1946 को लुसियाना, विसेंजा (इटली) में इतालवी माता-पिता के यहां जन्मीं सोनिया की मुलाकात इंग्लैंड में राजीव गांधी से हुई. यहां वह पढ़ाई कर रही थीं. 1968 में उनकी शादी राजीव गांधी से हुई थी. अपनी शादी के तुरंत बाद, गांधी परिवार की इतालवी बहू ने पांच दशकों में कई भूमिकाएं अदा कीः गृहिणी, आज्ञाकारी बहू, देखभाल करने वाली पत्नी और दो बच्चों की मां. फिर किस्मत ने परिवार की राजनीतिक विरासत उन पर थोप दी. राजीव गांधी की हत्या के तुरंत बाद 1991 में उन्होंने पार्टी अध्यक्ष बनने के लिए कांग्रेस नेताओं के लगातार आग्रह से इनकार किया, लेकिन आखिरकार 1998 में यह पद संभालने के लिए तैयार हो गईं. अध्यक्ष पद ने एक अंतर्मुखी सोनिया को एक चतुर राजनेता में बदल दिया.

साल 2017 ने उन्हें संन्यास लेने का मौका प्रदान किया क्योंकि राहुल ने कमान संभाली ली. लेकिन 2019 में कांग्रेस की हार, जिसके कारण बेटे ने पद से इस्तीफा दे दिया, ने इस मां को फिर से राजनीतिक परिदृश्य में ला दिया क्योंकि उनके पास पार्टी के विघटन को बचाने के लिए अंतरिम अध्यक्ष के प्रभार को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. अब जब पहले गैर-गांधी नेता कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए हैं, और सोनिया वृद्ध और बीमार हैं, अब वह निश्चिंत हो सकती हैं कि उन्हें फिर से कांग्रेस के जहाज को चलाने के लिए उन्हें नहीं बुलाया जाएगा.

सास की राह पर कदम रखना
अपनी सास और दक्षिण एशिया की कई अन्य महान महिला नेताओं के उलट, जो अपने राष्ट्र की मुखिया बनीं, सोनिया गांधी का जन्म एक राजनीतिक परिवार में नहीं हुआ था. वह एक पारिवारिक व्यक्ति थीं, जो इटली में एक कामकाजी परिवार में जन्मीं थीं. लेकिन एक प्यारी सास की मदद से वह उस भूमिका में आगे बढ़ीं, जो उन्होंने इंदिरा से सीखी थी. वह इंदिरा गांधी की तरह आगे बढ़ीं, उनकी तरह कपड़े पहने और आखिरकार अपने तेजतर्रार कौशल का प्रदर्शन किया. इसी कौशल ने पूर्व प्रधानमंत्री को भारत के सबसे शक्तिशाली राजनेता का खिताब दिलाया था.

कभी गांधी परिवार की राजनीतिक विरासत के लिए एक अप्रत्याशित उत्तराधिकारी मानी जाने वाली सोनिया गांधी ने भारत की सबसे पुरानी पार्टी की सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाली अध्यक्ष होने का गौरव हासिल किया. उन्होंने राजनीति की पेचीदगियों को सीखने का श्रेय अपनी सास को दिया. निश्चित रूप से, उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान पार्टी को सफलता के नए रास्ते पर ले जाकर हर कांग्रेसी नेता के सामने इसे साबित भी किया.

आग से खेलना
1998 में सोनिया के राजनीति में प्रवेश करने के बाद जब कांग्रेस बिखरी हुई थी और केवल चार राज्यों में सत्ता में थी, तब वह पार्टी की बागडोर संभालने के लिए तैयार हो गईं. छह वर्षों में उन्होंने 2004 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को हटाकर इसे जीत की ओर बढ़ाया. पदभार संभालने के शुरुआती वर्षों में इस बारे में सवाल थे कि क्या वह जटिल और कई तरह की चुनौतियों से निपटने में सक्षम होंगी.

एक अस्थिर पार्टी का नेतृत्व करने के लिए व्यापक मांगों के बीच, उन्होंने 1998 में सार्वजनिक जीवन में कदम रखा, एक ऐसा कदम जिसका कांग्रेस में व्यापक रूप से स्वागत हुआ. एक बार जब वह अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो गईं, तो उनकी शर्मीली हिचकिचाहट गायब हो गई और वह पार्टी की निर्विवाद मुखिया बन गईं. जिन लोगों ने उन्हें चुनौती दी, उन्हें जल्द ही पार्टी द्वारा बहिष्कृत कर दिया गया.

राजनीतिक करियर की शुरूआत
वह पहली बार 1999 में अमेठी से सांसद चुनी गईं, जिसके बाद वह लोकसभा में विपक्ष की नेता बनीं. बाद में अमेठी को अपने बेटे के लिए छोड़कर रायबरेली चली गईं. सोनिया को खुद अपनी काबिलियत पर शक था. एक नेता के बजाय एक “गृहिणी”, पार्टी की “राबड़ी देवी” और एक “रीडर” (भाषणों के) के रूप में उनका उपहास उड़ाया गया. लेकिन लगभग सभी को उनकी बातों पर खामियाजा भुगतना पड़ा.

“बलिदान”
जब उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह को चुना तो आश्चर्य हुआ. उनके समर्थकों ने इसे बलिदान बताया, जबकि कुछ ने इसे राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा. हालांकि, सोनिया गांधी ने यूपीए के अध्यक्ष और संसद में कांग्रेस के नेता के रूप में सत्ता का संचालन जारी रखा और सदनों के अंदर व बाहर अपनी रणनीति का नेतृत्व किया.

लोगों को अपनी सास की याद दिलाने वाली सूती साड़ियों में सोनिया गांधी ने रुक-रुक कर अपने उच्चारण वाली हिंदी में रैलियों को संबोधित करना सीखा और अपने इतालवी मूल के खिलाफ बीजेपी के आरोपों को उन्होंने कुंद कर दिया. उनके नेतृत्व में कांग्रेस केंद्र में 2004 से 2014 तक दो बार सत्ता में रही और कई राज्यों में सत्ता में लौटी. तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष ने समान विचारधारा वाले दलों के साथ सफलतापूर्वक चुनावी गठजोड़ किया. यूपीए-I और यूपीए-II सोनिया की गैर-बीजेपी ताकतों को एक साथ लाने की क्षमता के बेहतरीन उदाहरण थे.

‘सुपर कैबिनेट’ की मुखिया
शुरुआती असफलताओं के बाद, उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी को सत्ता में वापस लाया और 2009 में सफलता को दोहराया. उन्होंने प्रमुख पदों पर लोगों बिठाने में क्षमता से अधिक व्यक्तिगत वफादारी पर ध्यान दिया, जिसके परिणामस्वरूप प्रशासन में कमजोरी आई.

एक सुपर कैबिनेट के रूप में उनके द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को अर्थव्यवस्था प्रबंधन में प्रधानमंत्री की विशेषज्ञता के लिए एक सहयोगी के रूप में कम और गति अवरोधक के रूप में अधिक देखा गया. यह परिषद नेहरूवादी समाजवादियों से भरी हुई थी. उन्हें केंद्रीय मंत्रियों, गठबंधन सहयोगियों और सरकारी कर्मचारियों से जुड़े बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की अनदेखी करने के आरोपों का भी सामना करना पड़ा. इसने उनकी पार्टी की छवि को धूमिल कर दिया. यहां तक कि उनका कुशल राजनीतिक कदम भी पार्टी को जड़ता और सुस्ती से नहीं बचा सका. यह एक आक्रामक बीजेपी और नरेंद्र मोदी की वक्तृत्व कला की बराबरी करने में विफल रही. 2013 से गिरावट शुरू हो गई.

मर्यादा में रहकर मेहनत की
उनमें नेहरू जैसा करिश्मा नहीं था, इंदिरा जैसी राजनीतिक चतुराई और जुझारूपन या राजीव जैसा सहज आकर्षण नहीं था. लेकिन सोनिया ने अपनी मर्यादाओं में रहकर काम किया और समय के साथ अपनी दृढ़ता और संकल्प प्रदर्शन किया. उन्होंने आश्चर्यजनक लचीलापन और अपनी गलतियों से सीखने की इच्छा प्रदर्शित की.

सोनिया को अपनी पहली बड़ी चुनौती का सामना तब करना पड़ा जब अप्रैल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई, जब जयललिता की AIADMK ने विपक्ष की योजना के तहत समर्थन वापस ले लिया. सोनिया सरकार बनाने के लिए 272 सांसदों के समर्थन का दावा करने के लिए दौड़ पड़ीं, लेकिन सपा के मुलायम सिंह यादव का समर्थन नहीं जुटा सकीं.

दूसरी चुनौती तब मिली जब एक महीने बाद शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने उनके विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस को विभाजित कर दिया और मई में एनसीपी का गठन किया. तीसरी चुनौती साल के आखिर में आई जब उनके नेतृत्व में पार्टी ने केवल 114 लोकसभा सीटें जीतीं, जो कि पहले की तुलना में 37 कम थीं.

गलतियों से सीखा सबक
सोनिया की पार्टी ने एक नया निचला स्तर छुआ था लेकिन उन्होंने इससे कुछ महत्वपूर्ण सबक सीखे. 2004 के चुनावों से सतायी हुई सोनिया दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ीं. लोगों तक पहुंचने के लिए, उन्होंने इंदिरा के तौर-तरीकों और शैली का अनुकरण किया और अपनी सास के “गरीबी हटाओ” के भावनात्मक नारे को “कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ” के रूप में बदल दिया. इसी नारे के साथ उन्होंने बीजेपी-एनडीए के “इंडिया शाइनिंग” के नारे का मुकाबला किया.

उन्होंने सबसे बड़ी पार्टी होने का गर्व को अलग रहा और संभावित सहयोगियों से मुलाकात की, जिसमें पवार भी शामिल थे, जो उनके विदेशी मूल के कारण पार्टी से अलग हो गए थे. उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि चुनाव के बाद नेतृत्व के मुद्दे को उठाया जाएगा, जिससे पहला संकेत यह मिला कि वह प्रधानमंत्री पद की दावेदार नहीं होंगी. उनकी चतुर चाल फायदेमंद साबित हुई. 2004 में केंद्र में कांग्रेस पार्टी की पहली गठबंधन सरकार आई और फिर 2009 में सत्ता में आई.

यूपीए की पोल खुली
लेकिन यूपीए-2 में सरकार और पार्टी दोनों में उथल-पुथल शुरू हो गई थी और सोनिया को इस बात की जानकारी नहीं थी कि इसे कैसे रोका जाए. उदाहरण के लिए, यूपीए 2 के अंतिम तीन साल, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार के आरोपों से भरे हुए थे, विशेष रूप से गठबंधन सहयोगियों के मंत्रियों के बीच. शासन में निर्णय लेने में कमी दिखाई देनी लगी. इस बीच महंगाई भी बढ़ती गई.

इस दौरान कांग्रेस संगठन को भी नुकसान उठाना पड़ा. वजह थी सोनिया का फोकस राहुल को भविष्य के लिए तैयार करने पर था. राहुल को 2013 में पार्टी उपाध्यक्ष के रूप में पदोन्नत किया गया था और संगठन को चलाने के लिए एक खुला हाथ दिया गया था, इसकी वजह से पार्टी में पुराने नेताओं के बीच अपनी भूमिका को लेकर आशंका पैदा हो गई.

यूपीए शासन के 10 वर्षों के दौरान सोनिया ने संगठन को मजबूत करने पर भी ध्यान नहीं दिया, विशेष रूप से यूपी, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में. जहां से लोकसभा की लगभग 200 सीटें आती हैं. इससे इन राज्यों में बीजेपी और क्षेत्रीय ताकतों को बढ़ने का मौका मिला. लगता है कांग्रेस के लिए पहिया घूम गया है. जब सोनिया ने अपनी पारी शुरू की थी, तब पार्टी के पास केवल तीन राज्य सरकारें और 141 सांसद थे. अब जब उन्होंने पार्टी को एक गैर-गांधी के लिए छोड़ दिया है, तो पार्टी केवल तीन राज्यों में सत्ता में है (अगर हम हिमाचल प्रदेश को भी शामिल करते हैं).

और अभी पार्टी के पास सिर्फ 46 लोकसभा सांसद हैं, जो 1998 और 1999 के 141 और 114 सांसदों की संख्या को प्रभावशाली बनाता है. इसके अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व, उत्थान और पतन की अध्यक्षता की