Chambal को डाकुओं का गढ़ कहने पर ऐतराज, पान सिंह Tomar के पोते बोले- बागियों को डकैत कहकर अपमान न करें
Mhara Hariyana News, Bhopal
Congress विधायक रविंद्र सिंह Tomar को Chambal को डाकुओं का गढ़ कहने पर ऐतराज है। मुरैना जिले की दिमनी सीट से विधायक रविंद्र ने बजट सत्र के दौरान भोपाल में कहा- Chambal में कोई डकैत नहीं हुआ। सभी बागी हुए हैं। इसे डकैतों और बदमाशों से जोड़कर Chambal की धरती के लोगों का अपमान न करें। बता दें, Chambal की पहचान डाकुओं से होती रही है।
रविंद्र सिंह Tomar ने कहा- अन्याय के खिलाफ बगावत करने की क्षमता अगर देश में कहीं है तो Chambal के लोगों में है। काकोरी कांड के बाद रामप्रसाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में थे तो एक पत्र लिखा था। इसमें उनके बागी तेवर दिखते हैं।
Chambal को डाकुओं और बदमाश का क्षेत्र कहना Chambal के लोगों का अपमान
रविंद्र सिंह Tomar ने कहा- मैंने विधानसभा में अध्यक्ष से अनुरोध किया था, मैं समाज और मीडिया के मित्रों से भी कहना चाहता हूं कि Chambal को डाकुओं और बदमाश का क्षेत्र कहना Chambal के लोगों का अपमान है। अन्याय के खिलाफ बगावत करने की क्षमता वाले लोग Chambal में हैं। उन्हें बागी कह सकते हैं।
500 बागियों ने जौरा में आत्मसमर्पण किया था
जयप्रकाश नारायण ने बागियों के आत्मसमर्पण की मुहिम सुब्बाराव के नेतृत्व में चलाई थी। उसमें 500 बागियों ने जौरा में आत्मसमर्पण किया था। डाकू, बदमाश कभी आत्मसमर्पण नहीं करते।
जौरा में आज भी शिला पटि्टका लगी है। उसमें लिखा है- Chambal के बागियों की बंदूकें गांधी के चरणों में... आजादी के आंदोलन में बिस्मिल जी ने भारत मां के लिए जो त्याग और समर्पण किया वो अद्वितीय है। वो भी Chambal की धरती के निवासी थे।
पान सिंह के पोते हैं विधायक रविंद्र
विधायक रविंद्र सिंह Tomar Chambal में आतंक का पर्याय रहे पान सिंह Tomar के पोते हैं। रविंद्र कहते हैं कि हमारे बाबा पान सिंह Tomar यदि आज जीवित होते तो मिल्खा सिंह से बड़े धावक होते।
उन्होंने 17 देशों में सबसे तेज धावक के मैडल जीते थे, लेकिन अन्याय जब बढ़ा तो उन्होंने बंदूक उठा ली। बगावत का रास्ता अख्तियार कर लिया। जो लोग Chambal को डाकुओं और बदमाशों का क्षेत्र कहते हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि Chambal ने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ बगावत उस समय शुरू की थी जब हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप युद्ध लड़ रहे थे। उस समय Chambal के लोगों ने गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत कर बगावत का बिगुल फूंका था।
तेज धावक से पान सिंह Tomar के गैंगस्टर बनने की कहानी...
1 जनवरी 1932 को मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के भिडौसा गांव में एक बच्चे का जन्म हुआ। उस बच्चे ने चलने सीखने वाली उम्र में दौड़ना शुरू कर दिया।
गांव-घर के लोग 4 साल के बच्चे को फुल स्पीड में दौड़ते हुए देख अचंभित हुआ करते थे। बच्चा 17 साल का हुआ तो फौज की राजपूताना राइफल्स में उसका सिलेक्शन हो गया।
साल 1949 से लेकर 1979 तक फौज में नौकरी की। फौज की नौकरी करते हुए 7 बार राष्ट्रीय बाधा दौड़ का चैंपियन बना। एशियन गेम्स टोक्यो, जापान में भारत को रिप्रेजेंट भी किया।
पेट भरने के लिए स्पोर्ट्स कोटा जॉइन कर लिया
पान सिंह 6 फुट का हट्टा-कट्टा जवान था। सेना में जाने के बाद दिन-रात मेहनत करता था, इसलिए भूख भी बहुत लगती थी। सामान्य कोटा वाले फौजियों की खुराक निश्चित थी।
खाने को गिनती की रोटियां मिलती थीं। उन रोटियों से पान सिंह का पेट नहीं भरता था, इसलिए उसने स्पोर्ट्स कोटा जॉइन कर लिया।
पान सिंह राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने लगा। साल 1950 से लेकर 1960 के बीच उसने 7 बार नेशनल स्टीपल चैम्पियनशिप जीती। इसके बाद वे सूबेदार बनाए गए।
जमीनी विवाद के कारण समय से पहले नौकरी छोड़ दी
नौकरी करते हुए पान सिंह का जीवन सही बीत रहा था। घर में बीवी, 2 बच्चे और मां थी। इसी बीच गांव में उसकी जमीन को लेकर विवाद होना शुरू हो गया।
उसने वक्त से पहले नौकरी छोड़ गांव में रहकर खेती करने का फैसला लिया। पान सिंह और उसके चाचा की कुल मिलाकर ढाई बीघा जमीन थी। चाचा ने पूरी जमीन गांव के दबंगों बाबू सिंह और जंडेल सिंह Tomar के पास गिरवी रख दी।
कुछ दिनों बाद बाबू सिंह Tomar ने पूरी जमीन पर कब्जा कर चाचा को खेती करने से मना कर दिया। पान सिंह Tomar गांव पहुंचा तो उसने पंचायत बुलाई पंचायत ने फैसला सुनाया कि पान सिंह और उसका चाचा बाबू सिंह को उसके पैसे चुकाएं और जमीन वापस ले लें।
पान सिंह तैयार हो गया, लेकिन बाबू Tomar जमीन वापस करने के मूड में नहीं था। इसके बाद पान सिंह बागी हो गए।