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नाम की समाजवादी पार्टियां तो रहेंगी, अब कोई लोहिया का गढ़ा समाजवादी नहीं होगा

There will be socialist parties named, now there will be no Lohia's fort socialist

 
There will be socialist parties named, now there will be no Lohia's fort socialist
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वे अन्तिम समाजवादी थे, उनके बाद सिर्फ़ नाम की समाजवादी पार्टियां तो रहेंगीं, पर लोहिया का गढ़ा कोई समाजवादी नहीं होगा. डॉ लोहिया ने उन्हें अपने हाथों से गढ़ा था. यानी समाजवादी राजनीति के उत्तर लोहिया युग का अंत हुआ है. लफ़्फ़ाज़ी और नीतियों की बाल की खाल निकाले बिना मुलायम सिंह ने समाजवाद को अपने जीवन में उतारा था. गॉंव और खेत की मेड़ से उठे इस धरती पुत्र नें सही मायनो में लोहिया के गैर कांग्रेसवाद को अमली जामा पहनाया.1989 में मुलायम सिंह ने जिस कांग्रेस को उत्तर प्रदेश से उखाड़ा वह आज तक देश में जड़ें न जमा सकी, उनसे सहमत और असहमत हुआ जा सकता है पर उत्तर प्रदेश की राजनीति के वे नेता नहीं एक इमोशन थे. केवल संबंधों को निभाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने वाले इस पॉंच फुट के ज़िद्दी और ग़रीबों के लिए प्रतिबद्ध नेता ने अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया.


मुद्दों पर अड़ना और डटना उनकी फ़ितरत थी. इसीलिए मुस्लिम वोट बैंक के खजांची जामा मस्जिद के शाही इमाम को सबसे पहले राजनीति छोड़ सिर्फ इमामियत की सलाह देने वाले और फिर कानून की हिफाजत के लिए शंकराचार्य स्वरूपानंद जी की गिरफ़्तारी की हिम्मत मुलायम सिंह में ही थी. ये हिम्मत उन्हें गॉंव ,गरीब,किसान से जुड़े अपने गर्भनाल रिश्तों से मिलती थी. यह हिम्मत उनमें राममनोहर लोहिया की वैचारिक ट्रेनिंग, चौधरी चरण सिंह की सादगी और दृढ़ता,और जय प्रकाश नारायण की संघर्ष क्षमता से मिली थी. वे एकमात्र नेता जिनकी राजनीति वाकपटुता और भाषणों पर नहीं, बल्कि लोक क्षेम और अपने कार्यकर्ताओं से वैयक्तिक संपर्क पर आधारित थी. आजादी के बाद इस मुल्क में नेताओं के लिए “दीदी” “अम्मा” “अन्ना” “बहिन जी” “दादा” “ताऊ” जैसे तमाम उपाख्य हर राज्य में गढ़े गए ,पर “नेता जी” का प्रयोग केवल उन्हीं के लिए हुआ. यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि वे नौ बार विधायक, सात बार सांसद और तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने.